मूलतत्व ज्ञान (Basic Knowledge) हिन्दू धर्म में वेद, पुराण और शास्त्र और उपनिषद जैसे महाग्रंथ और महाभारत,रामायण जैसे महाकाव्य, और भी बहुत से ग्रन्थ हैं .जिसे पढ़ने या जानने की इच्हा हम सभी रखते हैं. और फिर पढ़ कर ज्ञानी होने का भ्रम रखते है.लेकिन क्या हमें ज्ञान हो जाता है और अगर ज्ञान हो जाता है तो हम उस ज्ञान के रूबरू होतें हैं या नहीं. या फिर ज्ञान हो गया बस इतना ही हमारे लिए बहुत है. हम वहीँ रुक जाते है. वेद, पुराण और शास्त्र पढ़ लेने से हम ज्ञानी नहीं बन जाते क्योंकि हम पढ़ तो लेते हैं पर मूल तत्व खो देतें हैं. पढ़ लेने के बाद हम सोचतें हैं हम ज्ञानी हो गए अब हमें कोई शोक या दुःख नहीं होगा. नारद जी ने ऐसा ही सुना था पर उनका अनुभव इसके विपरीत था. वे सोचते थे कि मैं ज्ञानी हूँ, फिर भी मुझे शोक क्यों होता है. यह जानने के लिए वो एक ऋषि के पास गए . ऋषि के पूछने पर नारद जी ने अपनी सब विद्यायों के बारे में बताया. ऋषिं ने पूछा और क्या जानते हो? तब ऋषि ने कहा अब ऐसा करो जो विद्यायें आपने पड़ीं हैं उन्हें समुंदर में फ़ेंक दीजिये. तब मैं आप को उस विद्या के बारे मैं बताउगा जिस से आप का शोक दूर होगा. उपनिषद में कहा है कि हम पुस्तकज्ञान से नहीं तर सकते. जो ज्ञान हमारे काम का है वह है आत्मज्ञान . इस का नाम ही आत्मविद्या है. और हम आत्मविद्या से ही तर सकते हैं.पुस्तकें सिर्फ बाहरी ज्ञान देती हैं. हम उस ज्ञान से बंध जाते हैं जो हमें पुस्तकों से मिलता है. उस आनंद तक हम लोग नहीं पहुँच सकते जो हमें वास्तव में चाहिए. शास्त्र हमारी आनंद की यात्रा में रूकावट बन जाते हैं. हम मूल तक तो पहुँच ही नहीं पाते क्योंकि मूल तत्व तो ग्रंथों और शास्त्रों के पार है और हम पार जाते ही नहीं. शास्त्र तो एक पुल है जिसे पार करके हमें उस पार जाना है पर हम उस पुल पर ही उसे पकड़ कर बैठ जाते हैं. हम यह भूल जाते है की पुल पार करने के लिए होते हैं उन पर घर नहीं बनाये जाते. अगर हम वही बैठ जाते हैं तो हमारी यात्रा वहीँ खत्म हो जाएगी. सिर्फ धार्मिक प्रवचन सुनने या पढ़ लेने के बाद ही हम सार तत्व तक नहीं पहुँच जाते उसके बाद भी बहुत कुछ है. ज़रुरत है उस यात्रा को समझने की और उसका रास्ता जानने की क्योकि उसका रास्ता कहीं बाहर से नहीं जाता या निकलता उसके लिए हमें यात्रा करनी है अपने भीतर की. इस यात्रा को न कोई समझा सकता है न बता सकता है उसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. यह अनुभूति ही तत्व बोध है. यात्रा करते हुए भटक जाना बहुत सरल है क्योकि कदम कदम पर कई बातें आपको आकर्षित करती हैं. हम वहीँ रुक कर उसका आनंद लेना चाहते हैं. तब हमारी बुधि पर उसी का पर्दा पड़ जाता है हमें सही और गलत का ज्ञान नहीं रहता. हमारे आदर्श भी हमारा मार्ग दर्शन नहीं करते. ऐसी स्थिति में परमात्मा ही आपका मार्ग दर्शन कर सकता है और वो आपकी अंतरात्मा के माध्यम से, क्योकि वही आपका एक सहारा होती है. परमात्मा को हम देख नहीं सकते पर हम अपने ही अंदर से उसकी आवाज़ सुन सकतें है. बस हमें ऐसी स्थिति में पहुंचना है कि हम उस आवाज़ को सुन सकें. आवाज इतनी मद्धम होती है कि हम चाहें तो उसे टाल भी सकतें हैं. लेकिन हमें सुननी ही पड़ेगी अगर हमें सफल होना है तो. अपनी यात्रा सफल बनानी है तो हमें अपनी अंतरात्मा कि आवाज़ सुननी ही पड़ेगी. परमात्मा का ज्ञान व्याख्यान नहीं किया जा सकता सिर्फ अनुभव किया जा सकता है इस रहस्य को और रहस्य में जीना ही सच्चा सुख है. वही सच्चा संत है जो इस रहस्य के साथ जीता है. वास्तविक संत तो इस यात्रा पार करनें के बाद ही बनतें हैं. परमात्मा के साथ एकात्मकता का रहस्य उस कि समझ में आ जाता हैं. उसे तत्व बोध हो जाता है. जानते हैं हमें यात्रा की जरूरत क्यों है और ये यात्रा है क्या. ये यात्रा हैं इस नश्वर संसार से निकल कर उस सत्य के संसार में जाने की जहाँ जाने के बाद कोई नष्ट होने वाली वस्तु होती ही नहीं.जहाँ परम सुख और शांति है. जिसकी खोज में ये मनुष्य सदियों से है. आसान नहीं है, पर निर्भर करता है हम कितनी दूर चल सकते हैं. इस यात्रा का उद्देश्य अपने आप से परिचित होना है. क्योंकि हम जो अपने आप को समझते हैं वो तो हम बिल्कुल भी नहीं हैं. पर फिर भी हम उसी माटी के पुतले से प्यार कर उसी में उलहज़ कर,उसी दिन और रात के चक्रव्हू में फँस कर सारा जीवन बिता देतें हैं. इसी चक्रव्हू को तोडना है और बाहर निकलना है. हमें इससे कोई सांसारिक वस्तु नहीं मिलेगी बल्कि अपने आप को जान लेने का सुख मिलेगा.ज्ञानी वेद पुस्तकें पढ़ कर वहीँ रुक जातें हैं क्योंकि पढ़ाई का गर्व हो जाता है. तर्क या वितर्क में उलझ जाता है. इसलिए उसका शोक दूर नहीं होता. यह दूर होगा असली ज्ञान से, जो भीतर होता है. वह आत्मज्ञान है. इसके लिए आत्मविद्या कि जरूरत होती है और इसके लिए आत्मज्ञान कि जरूरत है. सो हमनें सब पढ़ लिया, सुन लिया, अब हम पुस्तकों कि भाषा जान गए अब क्या? अभी ही वो समय है जब हम कुछ आगे बढ़ सकतें हैं. वो जान सकतें हैं, जिसे न बोला जा सकता है न पढ़ा जा सकता है. यह केवल एक अनुभूति है, यही मूल तत्व है जिसे हमें जानना है. इसका अर्थ हम कबीर के इस दोहे से जान सकते हैं: जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग, तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग. कबीर जी ने ठीक ही लिखा है: पोथी पढ़ पढ़ कर जग मुआ, पंडित भयो न कोए, ढाई आखर प्रेम के, जो पढ़े सो पंडित होए. ज्यों नैनो में पुतली, त्यों मालिक घाट माहीं, मूरख लोग न जानहिं, बाहर ढूंडन जाहीं.
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